कहा जाता है, और बहुत से लोग इसमें विश्वास भी करते हैं कि इंग्लैंड की
उन्नति का सबसे बड़ा कारण एक तो यह है कि वहाँ जलवायु सदैव शीतल रहने के कारण
इंग्लैंडवासियों को आलसी होकर नहीं बैठने देती। ग्रीष्म ऋतु की अपेक्षा शरद
ऋतु में हमारा कार्य करने में अधिक मन लगता है।
इंग्लैंडवासी सदैव ही ईश्वर की कृपा से अपने यहाँ ऐसा समय पाते हैं जो
उन्हें प्रतिक्षण कुछ-न-कुछ करने के लिए प्रेरित करता रहता है। दूसरे, चारों
ओर समुद्र से घिरा रहने के कारण उसे व्यापार में बहुत सुगमता रहती है। तीसरे,
यह कि इस देश ने पृथ्वी के धरातल पर देश की उन्नति और रक्षा के लिए बड़ा
उपयोगी स्थान पाया है- समुद्र से घिरा हुआ होने के कारण वह सुरक्षित तो हैं
ही, जैसा कि प्राचीन समय में खाई से घिरा हुआ कोई बड़ा किला होता था। दूसरे यह
कि नई और पुरानी दुनियाँ के बीच में होने से इसका संबंध दोनों से है और इस
संबंध से उसने अपने व्यापार की उन्नति करने में बड़े लाभ उठाए हैं। जापान की
जलवायु इंग्लैंड के ही समान है और उसकी स्थिति भी नई और पुरानी दुनिया
(अमेरिका और एशिया-अफ्रीका) के बीच में है तथा इसी कारण से जापान भी इंग्लैड
की भाँति उन्नति करता चला जाता है।
उपर्युक्त प्राकृतिक कारण प्रत्येक देश की उन्नति अथवा अवनति पर प्रभाव
डालते हैं, हमको इसमें संदेह नहीं है, परंतु हमारा यह विश्वास है कि वे किसी
देश की उन्नति अथवा अवनति के मुख्य कारण नहीं हैं। यदि ध्यानपूर्वक
इग्लैंड और जापान ही की उन्नति के इतिहास का निरीक्षण किया जाए, तो पता चलता
है कि उनकी उन्नति का आधार इन प्राकृतिक कारणों के अतिरिक्त एक और ही शक्ति
पर था, जिसके बिना वर्षों तक यही देश अवनति के गर्त में पड़े रहे और जिस शक्ति
के प्रादुर्भाव होते ही वे उन्नति के शिखर पर पहुँच गए। हम समझते हैं कि
समस्त विचारशील लोग हमारे इस विचार से सहमत होंगे कि इस शक्ति का नाम जातीयता
अथवा कहिए, राष्ट्रीयता है। यही प्रत्येक देश का मुख्य कारण है और इसी के
बिना आज भारत इस अवस्था को पहुँच गया है।
राष्ट्रीयता किसे कहते हैं? राष्ट्रीयता उस भाव का नाम है, जो कि देश के
संपूर्ण निवासियों के हृदय में देशहित की लालसा के साथ व्याप्त रहा हो, जिसके
आगे अन्य भावों की श्रेणी नीची ही रहती हो। भारत में यह राष्ट्रीय भाव कैसे
पैदा हो? प्रत्येक भाव में भक्ति और प्रेम होते हैं और प्रत्येक प्रेम और
भक्ति के आधार भी होते हैं। यह प्रकृति का नियम है कि मनुष्य जिस वस्तु से
प्रेम रखता है, उसका दास बन जाता है और उसके आगे अन्य समस्त वस्तुओं को
तुच्छ मानता है। धन ही से प्रेम रखने वाले धर्म और यश की कुछ भी अपेक्षा नहीं
करते और जिनको कि धर्म और यश प्यारा है, उनके आगे धन मिट्टी जैसा ही है। एक
युवक विद्या के उपार्जन करने में संपूर्ण विषय-भोगों का परित्याग कर देता है
और दूसरा खेल-कूद में ही अपना समय बिताता है। एक दयालु आत्मा को तो दूसरों के
साथ इतनी सहानुभूति होती है कि उनके दु:ख से वह प्रतिक्षण दु:खी रहता है और
दूसरी ऐसी भी आत्मा है कि जो 'आप मरे, जग प्रलय' की कहावत पर चलती है। कुछ
ऐसे पुरुष हैं, जो गवर्नमेंट की खैरख्वाही के पुछल्लों के लिए सच-झूठ बोल,
न्याय-अन्याय का विचार न कर, कार्य करते हुए दिन-रात खुशामद ही में लगे रहते
हैं; और दूसरे ऐसे हैं कि जिनकी प्रेम और भक्ति का विषय अपनी मातृभूमि है। वे
सच्चे सपूत दिन-रात कष्ट और हानियाँ उठाते हुए भी देश का हित करने में मग्न
हैं। जब देश में इसी भाव की बहुत आत्माएँ उत्पन्न हो जाती हैं तब उनका मन
मिल जाता है और वे सब के सब मिलकर, चाहे भिन्न-भिन्न मार्गों पर चलें, परंतु
उद्देश्य एक ही रखते हुए अपने सच्चे हार्दिक प्रयत्नों से अपने आप को नमूना
और अगुआ बनाते हुए, आपत्तियाँ झेलते हुए, अनुचित दबाव से न दबते हुए, देश भर
के संपूर्ण बालवृद्ध, स्त्री-पुरुष, नागरिक और ग्रामीणों के हृदय में सच्ची
देशभक्ति को उत्पन्न कर देते हैं। थोड़े ही दिनों में देश ही समस्त
देशवासियों के प्रेम और भक्ति का विषय हो जाता है और मतभेद, वर्णभेद और
जातिवाद के होते हुए भी राष्ट्रीयता का श्रेष्ठ भाव देशव्यापी हो जाता है;
और इतना बढ़ जाता है कि उसके आगे अन्य भावों का दर्जा नीचा जँचने लगता है।
जापान राष्ट्रीयता की इस श्रेणी पर पहुँच गया है। जापानियों में बौद्ध, ईसाई
और अन्य मतावलंबी भी हैं। परंतु यदि किसी से पूछा जाए कि तुम कौन हो, वह अपने
को बौद्ध, ईसाई अथवा अन्य मतावलंबी नहीं बताएगा, कहेगा कि मैं जापानी हूँ।
मेरा धर्म जापान है, मेरा कर्म जापान है, मैं जापान हूँ और मेरा सर्वस्व
जापान है।
रूस और जापान के युद्ध में पोर्ट आर्थर के मार्ग को रोकने में जब प्राण जाने
का भय था, उस समय तोकियो हीरोज ने, जो उस समय कमांडर थे और जो कि यह जानते थे
कि पोर्ट आर्थर जाना अपने प्राण गँवाना ही है, कहा था- ''आह! क्या ही अच्छा
हो, यदि ऐसे ही सात जन्म और धारण करूँ, और इसी प्रकार अपने देशहित के लिए
अपने प्राण दूँ। मैं मरने को तैयार हूँ। मेरा हृदय दृढ़ है। मुझे आशा है कि
हमारी विजय होगी। मैं बड़ी प्रसन्नता से जहाज पर जाता हूँ।''
कमांडर हीरोज के भाई ने जब अपने भाई की मृत्यु का तार घर भेजा तो उसमें लिखा-
''हमारे पूर्वजों की अपगत आत्माएँ अपने अंश के हीरोज सरीखे वीर पुरुष को पाकर
कितनी प्रसन्न होती होंगी। उसकी मृत्यु पर हमारे वंश को अभिमान है और इसलिए
हमको शोक नहीं करना चाहिए।''
उस युद्ध के समय राजा और प्रजा, सबके हृदय में यही भाव था। देश की जय के आगे
उन्हें प्रत्येक वस्तु तुच्छ जान पड़ती थी। स्त्री-पुरुष, बाल और वृद्ध,
अपने प्रियातिप्रिय प्राणों को भी देश के लिए अर्पण करने को उद्यत थे। एक घर
में इकलौते पुत्र के मर जाने पर माता इसलिए रोती थी कि उसके कोई दूसरा पुत्र
फिर युद्ध में भेजने को न था। रमणियों ने अपने आभूषण उतारकर युद्ध के व्यय
हेतु दे दिए थे। सम्राट ने अपने निज के व्यय को बहुत ही कम कर दिया था और
धनियों और सर्वसाधारण में परस्पर यह होड़ थीं कि देखें, कौन अपनी जायदाद का
अधिक भाग देश के लिए समर्पित करता है। जिस देश में ऐसी गाढ़ी देशभक्ति हो,
क्या वहाँ पर कोई मतभेद, वर्णभेद अथवा भेद डाल सकता है? कदापि नहीं। गाढ़ी
देशभक्ति से एकता होती है। एकता से राष्ट्रीयता का भाव और राष्ट्रीयता के
भाव से देश की उन्नति होती है।
भारतवर्ष में लोग सदा से धर्म को सर्वोपरि और सर्वश्रेष्ठ समझते चले आए हैं।
उसके लिए भारतवासियों ने अपने तन, मन, धन को कुछ नहीं समझा। जैसे कि बहुत से
देश अपने सांपत्तिक अभ्युदय के लिए धर्म-अधर्म का कुछ विचार नहीं करते, चाहे
झूठ बोलना पड़े, बेईमानी करनी पड़े और हिंसा भी क्यों न होती हो, परंतु यदि
कोई देश अथवा माल हाथ लगे तो कुछ परवाह नहीं। ऐसा विचार भारतवर्ष का कभी नहीं
रहा। यहाँ के धर्मयुद्ध, धर्मराज्य और धर्मकार्य प्रसिद्ध हैं। और इसमें
संदेह भी नहीं कि धर्म सर्वोपरि और सर्वश्रेष्ठ है। इसको खोकर अन्य वस्तुओं
को प्राप्त करना अपने परलोक को नष्ट करना है। प्रत्येक कार्य के करने में
धर्म का पालन करना आवश्यक है, परंतु धर्म को एक तमाशा बना लेना मूर्खता है।
धर्म की आड़ में अपनी निर्बलता और मानसिक अशक्ति को छिपाना नाश का कारण है।
बहुधा यह कहा जाता है कि भारतवर्ष में लोगों का अपने धर्मों में अधिकतर लगे
रहना ही इस देश की अवनति का कारण हुआ है। परंतु यह कहना ठीक नहीं है, धर्म में
लगे रहना तो किसी भी अवस्था में अवनति का कारण हो ही नहीं सकता। कारण यह है
कि भारतवासी धर्म में लगे रहना तो दूर रहा, अपने धर्म को समझते ही नहीं। धर्म
को एक खेल मान रखा है। क्या धर्मों के भेद से हिंदुओं, आर्यों, मुसलमानों और
ईसाइयों का आपस में झगड़ा करना कोई धर्म कहा जा सकता है? हिंदू मूर्तिपूजक हैं
और आर्य समाज नहीं; इसलिए उन दोनों में सदैव तनातनी रहे, यह कोई धर्म है?
हिंदू और मुसलमानों के मत अलग-अलग हैं; तो इस विचार से यदि कोई मुसलमान
हिंदुओं के सदैव विरूद्ध रहे, यहाँ तक कि गवर्नमेंट की दृष्टि में उनको बागी
साबित करने का झूठा-सच्चा प्रयत्न करें, तो क्या वे अपने धर्म में लगे हुए
हैं? कदापि नहीं। यदि ऐसा करते हैं तो हिंदू और आर्य अपने वेदों के, ईसाई अपनी
इंजील के और मुसलमान अपनी कुरान शरीफ के विरुद्ध चल रहे हैं। धर्म यह है कि
प्राणी को प्राणी के साथ सहानुभूति हो, एक दूसरे को अच्छी अवस्था में देखकर
प्रसन्न हो और गिरी हुई अवस्था में सहायता दें।
सच्चा तप यह है कि अपने भाइयों के ताप से तपा जाए; सच्चा यज्ञ यह है जिसमें
अपने स्वार्थ की आहुति दी जाए, सच्चा दान वह वह है जिसमें कि परमार्थ किया
जाए और सच्ची ईश्वर सेवा वह है कि उसके दुखी जीवों की सहायता की जाए।
परमात्मा सबके हृदय में व्याप्त है, इसलिए जितने प्राणियों को हम प्रसन्न
करें, उतना ही गुना ईश्वर को प्रसन्न करेंगे।
यह सच्चा धर्म देशभक्ति द्वारा प्राप्त है। देशभक्ति का संचार हमारे हृदय के
स्वार्थ को निकालकर फेंक देगा। हम अदूरदर्शी, स्वार्थी और खुशामदियों की तरह
ऐसे कार्य कदापि न करेंगे, जिनसे कि देशवासियों को हानि पहुँचे; बल्कि
दूरदर्शी, परमार्शी, सत्यशील और दृढ़ताप्रिय आत्माओं की भाँति, असंख्य
कष्ट उठाते हुए भी वही करेंगे, जिसमें देश का भला हो। निर्धन धनवान, निर्बल
बलवान, और मूर्ख भी बुद्धिमान हो जाएँ, प्रत्येक प्रकार के सामाजिक दुख मिटें
और दुर्भिक्ष आदि विपत्तियाँ दूर होकर लाखों बिलबिलाती हुई आत्माओं को सुख
पहुँचे। देशभक्ति द्वारा इतने धर्मों का संपादन होता हुआ देखकर भी यदि कोई
धर्म के आगे देशभक्ति को कुछ नहीं समझता, उस पुरुष को जान लीजिए कि वह धर्म
के तत्त्व को ही नहीं पहचानता। वह 'धर्म-धर्म' शब्द गा रहा है; परंतु यह नहीं
जानता कि धर्म क्या वस्तु है। प्राय: देश-भाइयों का विचार है कि ईश्वर का
भजन और उपासना करनी चाहिए, जिससे परलोक सँभले और झगड़ों में क्या रखा है?
वास्तव में झगड़ों में कुछ नहीं रखा है, परंतु देशभक्ति उन झगड़ों में शामिल
नहीं है। यह धर्म के एक साधन है; और जैसे कि गृहस्थाश्रम का पालन किए बिना
सन्यास ग्रहण करना अधर्म है, उसी प्रकार बिना देशभक्ति किए हुए मत-मतांतरों
में पड़े रहना समझना चाहिए। जो लोग गृहस्थाश्रम को लाँधकर सन्यासाश्रम में
कूद जाते हैं, यथार्थ में वे अधर्म कमाते हैं। स्मृति का वाक्य है-
ऋण देवस्य यज्ञेन
,
ऋषिणां दान-कर्मणा।
संतत्या पितृलोकानां
,
शोधयित्वा परिक्रमेत्।।
अर्थात् यज्ञ देवताओं का ऋण, कर्म द्वारा ऋषियों का ऋण और संतति द्वारा
पितृ-ऋण चुकाने के अनंतर सन्यासी होना चाहिए।
वे माता-पिता, जिन्होंने कि अपने पुत्र के लालन-पालन में अनेक कष्ट उठाए और
जिस पिता ने अपने पसीने की कमाई से उसे बड़ा किया और अपने आने वाले बुढ़ापे के
लिए उसे अपने सहारे की लकड़ी समझा, वह यदि उनकी आशाओं को पूरा न करके उनको
दीन-अवस्था में छोड़कर सन्यासी हो जाता है तो क्या वह धर्म कमाने जा रहा
है? स्त्री, जो अपने माता-पिता एवं कुटुंब को त्याग तुम्हारे ही ऊपर सब
भरोसा करके आई, उसको दु:खावस्था में छोड़कर वन को चले जाना, दूसरे की आत्मा
को दु:ख पहुँचाने का अधर्म अपने सिर पर लेना नहीं हैं? और जिस सुष्टि-रचना के
लिए ईश्वर ने मनुष्य को उत्पन्न किया है, उसके लिए पुत्र उत्पन्न न करके
अथवा उत्पन्न करने के पश्चात् उसको योग्य न बनाकर ही घर-बार त्याग देना
ईश्वर की आज्ञा का उल्लंघन करना नहीं है? हमारी संमत्ति में प्रत्येक
विचारवान् पुरुष इसके उत्तर में अवश्य 'है' ही कहेगा। बस, देशसेवा किए बिना
मत-मतांतरों के झगड़ों में पड़ना भी इसी प्रकार समझ लीजिए। धर्म के भेद,
वर्ण-भेद अथवा जाति-भेद तो प्राय: सब ही देशों में हैं। इनका कारण यह है कि
वहाँ पर चाहे धर्म और वर्ण आदि के अनुसार भाव की भिन्नता है, परंतु इन सबके
ऊपर उनके प्रेम और भक्ति का विषय एक और भी है, जो कि सबके लिए एक ही है और
जिसके लिए सबका एक ही भाव रहता है, यह विषय मातृभूमि है। इसमें संदेह नहीं कि
जो देशवासी अपनी मातृभूमि की गुरुता को भली-भाँति समझ लेंगे, उनमें धर्मभेद और
वर्णभेद रहते हुए भी एकता का अभाव नहीं पाया जाएगा। यदि आप विद्वान हैं, बलवान
हैं, और धनवान हैं तो आपका धर्म यह है कि अपनी विद्या, धन और बल को देश की
सेवा में लगाओ। उनकी सहायता करो जो कि तुम्हारी सहायता के भूखे हैं। उनको
योग्य बनाओ जो कि अन्यथा ही बने रहेंगे। जो ऐसा नहीं करते, वे अपनी योग्यता
का उचित प्रयोग नहीं करते। और ईश्वर की सौंपी हुई अमानत में खयानत
(विश्वासघात) करते हैं, जो कि एक अधर्म है और जिसका बुरा फल मिले बिना रह
नहीं सकता।
('अभ्युदय', भाद्रपद-शुक्ल 6 सं. 1964 अंक में प्रकाशित)